
जल की भरी गगरी
लेकर निकली मैं आज दोपहरी
धूप चिलकती थी सुनहरी
तन पर मेरे थी पीली चुनरी।
जाने कितने रंग समेटें
बर्फीले पथरों के नीचे
तपते रेगिस्तान में जलते जलते
आया यह पानी बहते बहते।
ख़ुशी भी देखी होगी इसने
ग़म के आसूँ भी होंगे छलके
घाट घाट का पानी पीकर
आया यह यमुना के तट पर।
यह पानी कितना कुछ कहता
सुन्ने वाला रह जाता भोचक्का
यह ना भेद करता है रंग में
घुल जाता हर किसी के रंग में
फिर क्यू आज हम लड़ते झगरते
रंगो में ख़ुद को बाँटते फिरते?
क्यू ना मिल ज़ाया सब एक ही रंग में
प्यार बाँटे और ख़ुशी बिखेरें ?
पानी आज बन गया है महंगा
बचा लो इसको कल पड़ेगा सहना
नई पीढ़ी से बस इतना कहना
पानी की तरह घुल मिलकर रहना ।
~
Nidhi